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माटी के गज़ल / मोती बी.ए.

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गोबर के ह गणेश त माटी के शिव हवे
एइसन जो न रहे त मटियामेट हो जाई

रउराँ रहीं उजागर, माअी रहे ई उरबर
मटियो के ए माअी से कबो भेंट हो जाई

माटी से दूर माटी कहिया ले रही सपकल
रउरे कृपा से माटी भरिपेट हो जाई

चाकी कोहार माटी भाषा के गढ़ल हउवे
रउरे बिना बतंगड़ सब ठेठ हो जाई

आसमान झुकी नीचे, धरती उड़ी अकासे
माटी जो बनल रही सरग हेठं हो जाई

माटी के करामात ह ई ‘भोजपुरी माटी’
अँटकल जो रही गटई के घेघ हो जाई

ई गजल त्रिकोणात्मक, रेखा ह सजी टेढ़
जो अरथ खोलि दीं त लउरि-लबेद हो जाई
27.10.94