मेरा दिमाग / अतुल कुमार मित्तल
एक तन्दूर है मेरा दिमाग
कविता का नर्म केक
नहीं पकता इसमें
वह तो झुलस कर कोयला
हो जाता है
इसकी तेज लपटों में
इसकी आंच कम करने
के लिए मैं और कस
लेता हूँ मुठ्ठियाँ अपनी
इतनी जोर से कि
नीली मोटी-मोटी नसें
उभर आती हैं हाथों पर
पर उंगलियों की दरारों
से फिसलता चला जाता
है मेरी उम्र का ईंधन
रुकता ही नहीं
और फिर मैं चौंककर
पूरा समेत लेना चाहता हूँ
उमड़ती हुई लपटों को
अपनी दोनों बाहों में
और तन्दूर में पकने लगती
हैं मोटी-मोटी रोटियां
दिन-रात इसमें पकती रहतीं
हैं टेढ़ी-मेढ़ी बदशक्ल बदमजा रोटियां
इतनी रोटियां
सिकती हैं इसमें
ढेर की ढेर
मानो कारखाना लगा हो कोई
रोटियां बनाने का!
और दूसरी तरफ लगता जाता
है ढेर कोयले का
ककनूसी कोयला
रोटियां बनती हैं जलती हैं
फिर कोयला बन जाती हैं
और पुन: जलकर
जुट जाता है बनाने में
और-और रोटियां!