मैं अपने शहर लौट आया, बेदर्द है वह, मैं जानता हूँ
निर्मम, निर्दयी, क्रूर है वह, रग-रग उसकी पहचानता हूँ
तू अगर लौटा है वापिस, तो जल्दी फिर गले में ठेल
लेनिनग्राद नगर में जलती लालटेनों में भरा मछली-तेल
पहचान ज़रा जल्दी से तू, हैं घोर दिसम्बर के ये दिन
पीला ज़रदी रंग झलकाएँ, ये अपशगुनी तारकोल के टिन
पितेरबुर्ग, ऐ पितेरबुर्ग, मैं फ़िलहाल चाहता नहीं मरना
मेरे फ़ोन नम्बर की तुझे, फिर क्या ज़रूरत, क्या करना
पितेरबुर्ग, ओ पितेरबुर्ग, मेरे पास पते अभी बचे हैं कुछ
जहाँ मृतकों को आवाज़ मिलेगी औ’ बदलेगा उनका रुख
परछत्ती में रहता हूँ मैं, उस चोर-सीढ़ी के क़रीब वहाँ
कनपटी का मेरी माँस नोचती, बजती है तीखी घण्टी जहाँ
रात-रात भर रहता है मुझे, उन मेहमानों का इन्तज़ार
बेड़ी की तरह हिले है साँकल, मेरे दरवाजे की लगातार
रचनाकाल : दिसम्बर 1930