मैं तुम्हें संपूर्णतः जान गया हूँ / अज्ञेय

 मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ।
तुम क्षितिज की सन्धि-रेखा के आकाश हो, और मैं वहीं की पृथ्वी।
हम दोनों अभिन्न हैं, तथापि हमारे स्थूल आकार अलग-अलग हैं; हम दोनों ही सात्त्विक हैं, पर हमारा अस्तित्व नहीं है; हम दोनों के प्रस्तार सीमित हैं, फिर भी हमारा मिलन अनन्त और अखंड है।
मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ।

दिल्ली जेल, 17 फरवरी, 1933

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