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मैं निभाती रही प्रेम को उम्रभर / रुचि चतुर्वेदी

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प्रेम दीपक हृदय द्वार पर रख रही तुम जो आओ तो दीपावली हो मेरी,
मैं निभाती रही प्रेम को उम्रभर तुम निभाओ तो दीपावली हो मेरी॥

द्वार मन के मैं सतिये लगाती रही बाँधती हूँ प्रतीक्षा कि झालर नयी,
नैन कजरा रंगोली बनाता रहा आँसुओं ने भरी फिर से गागर नयी।

नेह के दीप घृत से भरे सैकड़ों तुम जलाओ तो दीपावली हो मेरी।
मैं निभाती रही प्रेम को उम्रभर तुम निभाओ तो दीपावली हो मेरी॥

धन की तेरस मनाओ मगर साजना मन की चौदस तो मन की प्रतीक्षा करें।
भाव का हर कलावा कलाई बँधा नैन बस दो नयन की प्रतीक्षा करें।

प्रीत का गीत मैं गा रही आप भी गुनगुनाओ तो दीपावली हो मेरी।
मैं निभाती रही प्रेम को उम्रभर तुम निभाओ तो दीपावली हो मेरी॥

झिलमिलाता है मन प्रीत की ज्योति में तुम जो आओ अमावस सजे ये विनत।
धैर्य की चकरियाँ चल पड़ीं ज़ोर से फुलझड़ीं धड़ कनों की चलीं अनवरत॥

घर की लक्ष्मी खड़ी देहरी दीप ले घर सजाओ तो दीपावली हो मेरी॥
मैं निभाती रही प्रेम को उम्रभर तुम निभाओ तो दीपावली हो मेरी॥