भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ही हूँ, केवल मैं / सुभाष राय
Kavita Kosh से
एक छोर से दूसरे छोर तक
और उसके परे अनन्त, अनादि
भीगता हुआ अपनी ही बारिश में
तपता हुआ अपनी ही आग में
जमता हुआ अपने ही शीत में
ख़ुद को ही पार करने में असमर्थ
यह जँगल मुझसे ही रचा गया है
पेड़, फूल, फल, पत्तियों में
चींटियों, अजगरों, घड़ियालों में हूँ मैं
ख़ुद को ही निग़ल जाने को बेचैन
उत्तुँग, अछोर, असँख्य उपत्यकाओं पर खड़ा
पर्वत, बहता-झरता पिघलकर झरनों में
झीलों को अँजुरी में थामे, बादलों से खेलता
सदियाँ समेटे अपने भीतर मैं ही खड़ा हूँ
पृथ्वी की धमनियों की तरह
जीवन को सींचती हुईं नदियों के सँगीत में
चमकता हुआ सूरज की तरह
शीतल करता हुआ चन्द्रमा की तरह
झिलमिलाता हुआ तारों की तरह
समूचे ब्रह्माण्ड में बनता-बिगड़ता मैं ही हूँ, केवल मैं