मौन / महेश चंद्र द्विवेदी
मेरा छः वर्ष का पोता भ्रमित होकर‚
दुनिया की चालों से चकित होकर‚
एक निश्छल उत्तर की आशा में‚
अनुभवी बाबा से ज्ञान की पिपासा में‚
एक दिन पूछ बैठा मेरी आंखों में झांककर‚
क्या सचमुच सत्य होता है विजयी असत्य पर?
और पौत्र के समक्ष आज मैं मौन हूँ।
मेरे गुरुओं ने हर युग में राम की जीत
और रावण की हार होना पढ़ाया था‚
मेरे पिता ने मुझे असत्य पर‚ अंत में‚
सदैव सत्य का वर्चस्व होना बताया थाऌ
भगवद्गीता में कृष्ण ने दिग्भ्रमित अर्जुन को‚
निद्र्वन्द्व हो धर्मयुद्ध लड़ने का उपदेश सुनाया था‚
अपने पुत्र इसी प्रश्न पर मैं ने निश्शंक‚
हो उसे 'सत्यमेव जयते' का मार्ग दिखाया था।
परन्तु पौत्र के समक्ष आज मैं मौन हूँ।
ऐसा नहीं है कि गत युगों में प्रतिदिन‚
प्रतिपल सत्य असत्य को पछाड़ता था‚
तब भी मथुरा में कंस निज भगिनी के‚
पुत्रों को जन्मते ही पटककर मारता था।
पर जब भी दुष्टों के पाप का घड़ा
ऊपर तक भरकर छलकने लगता था‚
उनके दमन को कोई राम‚ कोई कृष्ण
किसी माँ के गर्भ में मचलने लगता था।
आज मैं इतना भी किस मुँहह से कहूँ?
अतः पौत्र के समक्ष आज मैं मौन हूँ।
अब अत्याचारी स्वयं सत्ताधारी बन‚
निद्र्वन्द्व हो समस्त देश को चरता है‚
जब हो सर्वत्र मगरमच्छों का राज‚
आर्त गज की गुहार कौन सुनता है?
आज पापों का घड़ा पल–पल भरता‚
क्षण–क्षण उफनता और छलकता है‚
विष्णु हो गये हैं क्षीरसागर में चिरसमाधिस्थ‚
दुष्ट–विनाशार्थ जन्म का कष्ट कौन सहता है?
आज मैं अर्जुन सम भ्रमित हूँ‚ मौन हूँ।
अतः पौत्र के समक्ष आज मैं मौन हूँ।