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राज़ को तो राज़ रहने दीजिए / कैलाश झा ‘किंकर’

राज़ को तो राज़ रहने दीजिए
शख़्स की आँखों में सपने दीजिए।

रोशनी का क़त्ल करती तीरगी
बात न्यायालय पहुँचने दीजिए।

शेर से लड़ने चला है फिर सियार
गीदड़ों की भाँति मरने दीजिए।

बात गैरों की नहीं अपनों की है
फिर भी ज़ख़्मों को तो भरने दीजिए।

कर रहे हैं लोग सब शिकवे-गिले
काम उनका ही है करने दीजिए।

हक़-परस्ती कौन करने आएगा
हक़ की ख़ातिर लड़ता लड़ने दीजिए।