भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम रस बूँदिया झहरि बरसे, भींजे सब प्रेमीगनवाँ / करील जी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम रस बूँदिया झहरि बरसे, भींजे सब प्रेमीगनवाँ।
संत सुजान एहि बूँदन भींजे।
कूर-कुटिल मन-मन तरसे, भींजे सब.॥1॥
प्रेम घन-घटा हृदय नभ उमड़े,
नाचि नाचि मन-मोर हरसे, भींजे सब.॥2॥
एहि रस बूँदन नेकहू भींजत।
सब विषयन-रस लागे जहर-सें, भींजे सब.॥3॥
ज्ञान विराग जोग जप तप सब।
तुलत न प्रेम रस एक लहर से, भींजे सब.॥4॥
नाम-नेह-चिकनाई भरल मन।
नाहीं ‘करील’ माया-जल परसे, भींजे सब.॥5॥