रास्ता / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन
तुम्हारी आँखों में
एक लंबा रास्ता ठिठका हुआ है
इतने दिनों तक मैं उसे नहीं देख सकी
आज जैसे ही तुमने नज़रें घुमाई
मुझे दिखाई दे गया वह रास्ता।
बीच-बीच में तकलीफ़ झेलते मोड़
रास्ते के दोनों ओर थे मैदान
फ़सलों से भरे खेत
वे भी जाने कब से ठिठके हुए थे
यह सब तुम्हें ठीक से याद नहीं था
आँखों के भीतर एक रास्ता पड़ा हुआ था
सुनसान और जनहीन।
दूसरी ओर
कई योजन तक ज़मीन पर फैला हुआ था पानी
वहाँ रास्ता भी व्यर्थ की आकांक्षा-जैसा मालूम होता था
कँटीली झाड़ियाँ थीं और नमक से भरी थी रेत,
कहीं पर भी ज़रा-सी भी छाया नहीं थी
इन सबको पार कर जो आया है
क्या तुम उसे पहचानते हो?
वह अगर कभी भी राह न ढूँढ़ पाए
तो क्या तुम उससे नहीं कहोगे
कि तुम्हारी आँखों में एक रास्ता है
जो उसका इंतज़ार कर रहा है?