रोज की आदत मेरी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
रोज की आदत मेरी यह छूटनी संभव नहीं।
भूल जाओ तुम मुझे, यदि चाहती हो सुख कहीं॥
भरा दोषोंसे, तुम्हारे साथ कुछ तुलना नहीं।
रूप-गुण-माधुर्यमें तुम-सी नहीं ललना कहीं॥
दिव्य प्रतिमा प्रेमकी तुम त्यागकी शुचि मूर्ति हो।
इस अभावोंसे भरे जीवनकी मधुमय पूर्ति हो॥
अतुल निज गुणसे मुझे गुणवान ही तुम जानती।
प्रेम-गुण-माधुर्य-पूरित हो मुझे तुम मानती॥
गुण अमल अति पर असलमें है तुम्हारा भ्रम महान।
भूलसे तुम जानती हो, मुझे नित शुचि प्रीतिमान॥
प्रेम निर्मलसे रहित, शुचि रूप सद्गुणहीन मैं।
मधुरिमा मुझमें न कुछ, हूँ कलुष-पूरित दीन मैं॥
योग्यताकी दृष्टिस्न्से मैं अनधिकारी हूँ सदा।
पर न करती तुम मधुर निज प्रीतिसे वचित कदा॥
इस तुम्हारे एक-अङङ्गी प्रेमका मैं दास हूँ।
इसीसे रहता तुम्हारे पद-युगलके पास हूँ॥
चाहता, तुम छोडक़र मुझको बनो, बस, सुखी अब।
देखकर तुमको सुखी होगा मुझे सुख परम तब॥
पर सकोगी छोड़ तुम, सभव नहीं लगता मुझे।
तुम्हीं प्राणाधार, भारी दुःख भी होगा मुझे॥