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रोज़ कथा सपनों की / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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रोज़
कथा सपनों की चलती है
रात-भर
कभी किसी टापू पर
भीगे दिन मिलते हैं
और कभी सूरज के
नये पंख हिलते हैं
एक
नयी खुशबू तब पलती है
रात-भर
मुँह-ढाँपे आकृतियाँ
आती हैं-जाती हैं
गुंबज के नीचे वे
शोकगीत गाती हैं
नदी-पार
एक चिता जलती है
रात-भर
भीड़-भरी सडकों पर
यात्राएँ होती हैं
या लहरें
सूने आकाशों को धोती हैं
पहचानें
अनजाने ढलती हैं
रात-भर