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रोशनी कहाँ तुझसे हट कर ओरे मन / लाला जगदलपुरी

छूट गये वनपाखी, रात के बसेरे
जाल धर निकल पड़े, मगन मन मछेरे

पानी में संत चुप खड़े उजले-उजले,
कौन सुनेगा मछली व्यर्थ किसे टेरे

कानों से टकराती सिसकियाँ नदी की,
पुरवा जब बहती है रोज़ मुँह-अँधेरे

रोशनी कहाँ तुझसे हट कर ओ रे मन
ना चंदा के घर, ना सूरज के डेरे

जुड़े ही नहीं ज़िद्दी, किसी वंदना में,
कैसे समझाऊँ मैं हाथों को मेरे