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लगी तोड़ने ख़ामोशी को बंजारिन वाचाल हवा / राजेन्द्र गौतम

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लगी तोड़ने ख़ामोशी को
बंजारिन वाचाल हवा की
 नर्म-नर्म पगचापें

सूनी पगडण्डी पर पड़ते
मुखर धूप के पाँव
धुन्ध चुप्पियों की फटती है
लगे दीखने गाँव
कुहरे ढकी नदी पर दिखती —
हिलती-कँपती छाँव
मौसम के नाविक ने खोली
बँधी हुई फिर नाव
लहरों पर से लगी चीरने
अन्धियारे की परतों को अब
 चप्पू की ये थापें

बछड़ों से बिछुड़ी गायों-सी
रम्भा रही है भोर
डाली-डाली पर उग आया
कोंपलवर्णी शोर
सारस-दल की क्रेंकारों से
गूँजे नभ के छोर
झीलों में आवर्त रच रहे
रंगों के हिलकोर
गन्ध थिरकती है पढ़-पढ़ कर
सन्नाटे की रेती पर ये —
 पड़ी गीत की छापें