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श्री रघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि।।
परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि।।
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दिया ेजल निज पानि।।
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रूचि बखानि।।
रजनिचर अरू रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भेंटत देह-दसा भुलानि।।
कौन सुभगा सुसील बानर, पूजे भवन बपने आनि।।
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसिदास कुटिल कपट न ठानि।।
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