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/* रामचरितमानस की रचना */
==रामचरितमानस की रचना==
इसके बाद भगवान्की आज्ञासे तुलसीदासजी [[भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी]] चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान् [[विश्वनाथ]] और माता [[अन्नपूर्णा]] को [[श्रीरामचरितमानस]] सुनाया। रातको रात को पुस्तक श्रीविश्वनाथजीके मन्दिरमें श्रीविश्वनाथ जी के मन्दिर में रख दी गयी। सबेरे जब पट खोला गया तो उसपर उस पर लिखा हुआ पाया गया- ''''[[सत्यं शिवं सुन्दरम्]]'''' और नीचे भगवान् [[शंकर]] की सही थी। उस समय उपस्थित लोगोंने ''''[[सत्यं शिवं सुन्दरम्]]'''' की आवाज भी कानोंसे कानों से सुनी।
इधर पण्डितोंने पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मनमें मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदासजीकी बाँध कर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तकको पुस्तक को नष्ट कर देनेका देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होने पुस्तक चुरानेके चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरोंने चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदासजीकी कुटीके तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्णके वर्ण के थे। उनके दर्शनसे चोरोंकी दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समयसे समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजनमें भजन में लग गये। तुलसीदासजीने तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान्को भगवान को कष्ट हुआ जान कुटीका कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र [[टोडरमल]] के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसीके आधारपर उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तकका पुस्तक का प्रचार दिनोंदिन दिनों दिन बढ़ने लगा।
इधर पण्डितोंने और कोई उपाय न देख [[श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी]] को उस पुस्तकको देखनेकी प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर यह सम्मति लिख दी-