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Kavita Kosh से
तुम जैसी कोई चीज़ मगर दूसरी कहाँ
ये जो बरहना <ref>निर्बस्त्र </ref> संत है पहचानिए हुज़ूर
ये गुल खिला गई है तिरी दिल्लगी कहाँ
करने चले हैं आप ये अब आरती कहाँ
</poem>
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