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बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।रहिमन उजली प्रकृति फाटे दूध को, नहीं नीच को संग। करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग॥220॥मथे न माखन होय॥140॥
रहिमन कहत स्वपेट सोंअँसुआ नैन ढरि, क्यों न भयो तू पीठ। रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ॥259॥ होत कृपा जो बड़ेन की, सो कदापि घट जाय। तो रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥260॥ वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग। बाटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग॥261॥ होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर। बढ़िहू सो बिन काज की, तैसे तार खजूर॥262॥ हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर। जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥263॥ अनकिन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय। ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥264॥बिधना यह जिय जानिकै, सेसहि दिए न कान। धरा मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान॥265॥ एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड। कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥266॥ जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय। बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय॥267॥ चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि। सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो किआहि॥268॥ चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥269॥ जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय। ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय॥270॥ खैंचि चढ़नि ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति। आजकाल मोहन गही, बसंदिया की रीति॥271॥ कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम। काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम॥272॥ जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट। भगत भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट॥273॥ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन। जैसी संगती बैठिए, तैसोई फल दीन॥274॥ पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त। होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त॥275॥ आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई। लघु मति ते मो मन रमन, अस्तुति कही न जाई॥276॥ नैन तृप्ति कछु होत है, निरखि जगत की भांति। प्रगट करेइ।जाहि ताहि में पाइयत, आदि रूप की कांति॥277॥ उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय। परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय॥278॥ परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान। जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान॥279॥ रूप रंग रति राज में, खत रानी इतरान। मानो रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान॥280॥ परस पाहन की मनो, धरे पूतरी अंग। क्यों न होय कंचन बहू, जे बिलसै तिहि संग॥281॥ कबहुं देखावै जौहरनि, हंसि हंसि मानकलाल। कबहुं चखते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल॥282॥ जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई। पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई॥283॥ कैथिनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन। छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन॥284॥ बरूनि बार लेखिनि करै, मसि का जरि भरि लेई। प्रेमाक्षर लिखि नैन निकारो गेह ते, पिये बांचन को देई॥285॥ पलक म टारै बदन ते, पलक कस न मारै मित्र। नेकु न चित ते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र॥286॥सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान। छूरी लरै बंदूकची, भौहें रूप कमान॥287॥ कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि। नैन माहिं चोवा मटे, छोरन माहि फुलेलि॥288॥ करै न काहू की सका, सकिकन जोबन रूप। सदा सरम जल ते मरी, रहे चिबुक कै रूप॥289॥ करै गुमान कमागरी, भौंह कमान चढ़ाइ। पिय कर महि जब खैंचई, फिर कमान सी जाइ॥290॥ सीस चूंदरी निरख मन, परत प्रेम के जार। प्रान इजारै लेत है, वाकी लाल इजार॥291॥ जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं। डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि॥292॥ भाटिन भटकी प्रेम की, हर की रहै न गेह। जोवन पर लटकी फिरै, जोरत वरह सनेह॥293॥ भटियारी उर मुंह करै, प्रेम पथिक की ठौर। धौस दिखावै और की, रात दिखावै और॥294॥ पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट। बिरही नेकु न छाड़ही, वा पटवा की हाट॥295॥ सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम सर फूट। लोक लाज उर धाकते, जात समक सी छूट॥296॥ राज करत रजपूतनी, देस रूप को दीप। कर घूंघट पर ओट कै, आवत पियहि समिप॥297॥ हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत। सुखा नेक चटवाइ कै, हड़ी झाटि सब देत॥298॥ हाथ लिए हत्या फिरे, जोबन गरब हुलास। धरै कसाइन रैन दिन, बिरही रकत पिपास॥299॥ गाहक सो हंसि बिहंसि कै, करत बोल अरु कौल। पहिले आपुन मोल भेद कहि, कहत दही को मोल॥300॥देइ॥180॥
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