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Kavita Kosh से
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,<br>
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,<br>
मेरे ही उर पर, धँसती धँसाती हुई सिर,<br>
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें<br>
मीठी है दुःसह!!<br>
होठ रख, कोई सच-सच बात<br>
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर<br>
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर<br>
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?<br>
द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --<br>
भोला-भाला भाव--<br>
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है!!<br>वह यह वही व्यक्ति है, जी हाँ!<br>
जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।<br>
अवसर-अनवसर<br>
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत, <br>
इशारे से बताता है, समझाता रहता,<br>
हृदय को देता है बिजली के झटके!!<br>
अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,<br>
गालों पर चट्टानी चमक पठार की<br>
(यह भी तो सही है कि<br>
::कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)<br>
कतराता रहता,<br>
डरता हूँ उससे।<br>
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,<br>
वह जन वैसे ही<br>
आप चला जाएगा जायेगा आया था जैसा।<br>
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा<br>
पीड़ाएँ समेटे!!<br>
क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,<br>
इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा<br>
अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा<br>
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका<br>
सह नहीं सकता!!<br>
नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,<br>
सहना पड़े--मुझे चाहे जो भले ही।<br><br>
उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,<br>
चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे<br>
अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर<br>
बढ़ता हूँ आगे,<br>
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