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{{KKRachna
|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
अर्पण कए पुनि पगकें दाबि
धन्य भेलहुँ हम दर्शन पाबि।
कहल रामकें राज निषाद,
मिटल सकल पापक अवशाद।
जन्म जन्म हम कयलहुँ पाप,
पाबि तकर फल छल संताप।
घर पवित्र चलि करू निवास,
पुरत हमर सभ मन अभिलाष।
सेवा कए हम होयब धन्य,
भक्ति करब हम बनब अनन्य।
हैत उचित नहि कहलनि राम,
वन वासी भए गृह विश्राम।
अहाँक प्रीति रस भीजल बात,
सुनि अतिसैं अछि पुलकित गात।
गंग पर हित नाव मंगाउ,
जाहिसँ चढ़ि हम आगा जाउ।
नाव समुद्यत अछि रधुवीर,
कह निषाद नयन लए नीर।
अहाँक चरण केर बिकट प्रभाव,
लोक कहै अछि ओकर स्वभाव।
शिला बनल छल सुन्दरि नारि,
भय होइछ नहि हो वट मारि।
एतबे गुजरक हमर उपाए,
सभ परिवारक रहल सहाए।
तरणि हमरजौं बदलत देह,
उजड़त हमर सम्हारल गेह।
पहिने पग हम लेब पखारि,
तखन चढ़ायब, अपन सम्हारि।
कहि कठौत गुह लेल मगाए,
धोय चरण मन गेला अघाए।
लए त्रिभुवन पति केर पग हाथ,
पओलनि सभ किछु भेला सनाथ।
कए निषाद चरणोदक पान,
बहुत कयल राम यश गान।
नाओ चढ़ाए उतारल पार,
राम लखन सिय जगदाधार।
परितोषक मन सबहक भेल,
किन्तु निषाद जोरि कर लेल।
कहल एतए कयलहुँ हम पार,
ओतए धयलनि आगाँ अवनीश।
टेढ़ मेढ़ बन-पथकें घूमि,
अयला चित्र कूट केर भूमि।
लखन बनौलनि कुटी सुरम्य,
युगसँ अछितें बनल प्रणम्य।
त्रिभुवन पति कयलनि विश्राम,
दर्शन फल पुरबए मन काम।
'''एम्हर अयोध्या में नृपति, दशरथ तजलनि प्राण।'''
'''पुत्र शोक दारूण बनल, पाबिने सकला त्राण।'''
मातामह गृह छला भरथजी,
छोट भाइ शत्रुहनक संग।
समाचार सुबितिक भरिगर,
केलनि शांति सुख सभटा भंग।
आवि अयोध्या कैकेयीकें,
भरथ कहल बहु बात कुबात।
मंथराक बहु दुर्गति कयलनि,
उर लागल छल बहु अभिघात।
कहल रघुकेर धबल बंधुमे,
अहाँ लगौलहुँ पैघ कलंक ।
विदित हैब धरणीकेर उपर,
धब्बा अछि जनु बीच भयंक।
नृपति मृत्यु बन्धुक बिग्रह केर,
सतत रहब दुष्टांत बनल।
संतापक दुर्गंधक संगहि,
हमहुँ रहब पाँकहिमे फँसल।
राम पैघ छथि पैघे रहता,
छोटक राज्यक कतए प्रसंग।
मूँह छोड़ि नासा जल पीबए।
मूर्खहु एकरा कहत असंग।
रहितहुँ जौं नहि माय अहाँ तऽ,
करितहुँ क्रोधक प्रबल प्रयोग।
कुल मर्यादा तोड़ि हटबितहुँ,
अहाँक मेटबितहुँ सभ सुख भोग।
खेदक उदधि हदय अछि उमड़ल,
जन्म किए हमरा दए देल।
बीचहिमे जौं पात कए दितहुँ,
धन्य धन्य हम रहितहुँ भेल।
अतिसैं क्रोधक सामाचार सुनि,
गुरू वशिष्ठ अएला तत्काल।
शास्त्र पुरानक नीति बुझाओल,
मेटलज भरथक भ्रमकेर जाल।
जीव मात्र कर्मक अधिकारी,
बनल धरणि पर मात्र निमित्त।
कर्ता विधि जे चाहि कराबथि,
जेहने होइछनि जीवक चित।
कैकेयी केर कतहु दोष नहि,
कतहु मंथरा केर नहि दोष।
पितृ दाह संस्कार कर्म अछि,
त्यागि दिअऽ सभ मन केर रोष।
गुरू आदेश पाबि सभ कयलनि,
संस्कारादिक श्राद्धक कर्म।
किन्तु सतत, विरहाग्नि रामकें,
जरा रहल छल भरथक मर्म।
दोसरे दिन बजबाए गुरूकें,
मंत्रिएगक कयलनि बैसार।
नयन अश्रु लए कहलनि सभकें,
राम बिना अछि जीवन भार।
जायब काल्हि घुराबए हुनका,
स्वीकृति देब अछि ई विश्वास।
राम बिना नहि रहब अवधमे,
हमहू करब वनहिमे वास।
सुनि प्रस्ताव भरथ केर उत्तम,
सबहक उर बीच उपजल हर्ष।
भ्रातृ प्रेम बस तजल राज्सकें,
प्रस्तुत कयलनि उच्चादर्श।
चलला भरथ घुराबय राम,
संग चलल छल गामक गाम।
गुरू वशिष्ठक कौशिल्या रानि,
चललि सुमित्रा सभगुण खानि।
कैकेयी सेहो तजि रोष,
चललि मेटाबए सभटा रोष।
मंत्रिगणहु नहि छोड़ल संग,
एहि अभियानक बनला अंग।
देखल जन गण बहुत अबैत।
आगाँ आगाँ भरथ बढ़ैत।
</poem>
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