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|रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्जी'
|अनुवादक=
|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
ऊषे!
तेरी याद लिये
नयनों में रात बिता दूँगा!
इस जीर्णोन्मुख जीवन मन्दिर में
तेरी प्रतिमा आरोपित कर!
सुधा स्नेह सिंचित शशि-दीपक से
पूजाघर आलोकित कर!
युग-युग से व्याकुल
तृषित सजन नयन-करों से
जप तारक-माला के मोती!
अधखिले अविकसित
अभिलाषाओं के कलि-कुसुमों की
देकर अर्चना!
जर्जरित मानस के
स्पन्दित नीरव स्वर में कर वन्दना
निस्सार प्राणों का दे अर्घ्यदान
जब यह नैराश्य घन अन्तर-तम
होगा पूर्ण ज्योतिर्मय!
तब होकर प्रसन्न
अमृतमय स्वर मधुरिम से कर पुकार
रे उठ ओ भक्त वरदान माँग!
पर अस्तु-एवं पूर्व देवि
तनिक फिर यह सोच लेना
भक्त की चिर-याचना क्या?
न मोक्ष ही की चाह मुझको
न स्वर्ग ही की राह मेरी
कामना केवल यही
है साधना मेरी यही
पा तुझे ही वरदान में
केवल तुम्हारा प्यार लूँगा!
ऊषे!
तेरी याद लिये
नयनों में रात बिता दूँगा!
</poem>
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|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
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ऊषे!
तेरी याद लिये
नयनों में रात बिता दूँगा!
इस जीर्णोन्मुख जीवन मन्दिर में
तेरी प्रतिमा आरोपित कर!
सुधा स्नेह सिंचित शशि-दीपक से
पूजाघर आलोकित कर!
युग-युग से व्याकुल
तृषित सजन नयन-करों से
जप तारक-माला के मोती!
अधखिले अविकसित
अभिलाषाओं के कलि-कुसुमों की
देकर अर्चना!
जर्जरित मानस के
स्पन्दित नीरव स्वर में कर वन्दना
निस्सार प्राणों का दे अर्घ्यदान
जब यह नैराश्य घन अन्तर-तम
होगा पूर्ण ज्योतिर्मय!
तब होकर प्रसन्न
अमृतमय स्वर मधुरिम से कर पुकार
रे उठ ओ भक्त वरदान माँग!
पर अस्तु-एवं पूर्व देवि
तनिक फिर यह सोच लेना
भक्त की चिर-याचना क्या?
न मोक्ष ही की चाह मुझको
न स्वर्ग ही की राह मेरी
कामना केवल यही
है साधना मेरी यही
पा तुझे ही वरदान में
केवल तुम्हारा प्यार लूँगा!
ऊषे!
तेरी याद लिये
नयनों में रात बिता दूँगा!
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