भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
7,402 bytes removed,
06:41, 15 मार्च 2017
{{KKGlobal}}
{{KKRachnaKKPustak|चित्र=|नाम=तप्तगृह|रचनाकार=[[केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]|प्रकाशक=बिहार पब्लिशिंग हाउस, पटना - ४|वर्ष=1971|भाषा=हिन्दी|विषय=तप्तगृह एक यातना-गृह था जिसमें अजातशत्रु ने बिम्बसार को कैद कर रखा था। यह यातना-गृह राजगृह में स्थित था और अपनी उष्णता के लिए जाना जाता था।|शैली=प्रबन्ध काव्य|पृष्ठ=115|अनुवादकISBN=|संग्रहविविध=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>तप्तगृह स्वागत काकोई स्ािान नहींताप ====इस ठौर हैज्वाला है, दाह है,लपटें हैं लू कीयातना है यम कीफिर भी मनुष्य मैंतुम भी मनुष्य होअतएव स्वागत हैबोलो, आदेश क्या?’पूछा बिंबसार नेपूछता है जैसेआंधी से, आने काकारण प्रकंप-भरामिट्टी का दीप लघु‘लौ’ के स्वरों में। नापित की आंखों सेअश्रु लगे बहने और कहा राजा सेउत्तर पुस्तक में उसने-संकलित रचनाएँ====‘होता यदि मूक मैं* [[तप्तगृह / सर्ग 1 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]या कि जीभ जाती कट* [[तप्तगृह / सर्ग 2 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]तो मैं सराहता* [[तप्तगृह / सर्ग 3 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]भाग्य आज अपना।* [[तप्तगृह / सर्ग 4 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]एक ओर आग्रह के* [[तप्तगृह / सर्ग 5 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]आंसू-सी भावमयी* [[तप्तगृह / सर्ग 6 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]सामने खड़ी है दीन* [[तप्तगृह / सर्ग 7 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]कातर मनुष्यता,* [[तप्तगृह / सर्ग 8 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]एक ओर बार-बार* [[तप्तगृह / सर्ग 9 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]आंखें गुरेरता* [[तप्तगृह / सर्ग 10 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]हिंसक के क्रोध-साभय कठोर शासन काबीच में खड़ा है क्लीवउदास...’ दु्रत खेल गईनीरस मुस्कान एकसौम्य मुख-मंडल परबन्दी नरेश केऔर उठे बोल वेबात काट नापित की‘शासन कल्याणमयहोता कठोर हीनिर्भय हो शीघ्र करोपालन कर्त्तव्य काक्या है आदेश महा-महिम मगधराज का?’गहरी उसांस लेनापित लगा कहने-‘अतिशय कठोर औरनिर्मम आदेश है।पैरों को आपकेपहले है चीरनाऔर जब पीड़ा कीटीस उठे घाव मेंलौन भर उसमें तबभरना अंगार है!आज्ञा न शासन कीआज्ञा न न्याय कीबल का नृशंस यहदुर्दम हुंकार है।पूजा जिन हाथों नेइन पवित्र चरणों कोवे ही प्रहार करेंकिस प्रकार उन पर?जिसकी कृपा के दो-चार कण बटोर करजीवन को आज तकढोता रहा जग मेंकैसे बहाऊं मैंरक्त उस महान का?’बिंबसार स्तब्ध रहेकुटिल खेल देखकरसत्ता के जादू का;स्तब्ध रहे देखकरनग्न नारकीय नृत्यमानव के भीतर कीदानवी प्रवृत्ति कादेखा लौह-द्वार कोऔर देखा नापित को,देखा फिर आंख फाड़भावी का रूप भीलपटों के बीच जो द्रव-सा था जलतारंचक भी किंतु नहींव्याकुल नरेश हुए,सोचा कि चलता थाखेल लोमहर्षक जोमंच पर मगध केउसका दृश्यांत अबआ गया समीप है,पटाक्षेप होने कीबेला भी आ गई! ठीक तभी बोल उठीफिर वह प्रवंचना‘मानव का रक्त हीकाव्य राजनीति कालिखती हूं जिसको मैंसत्ता के पट परयुग-परिवर्तन काआता मुहूर्त जबउसमें तब विस्फुलिंगभरती हूं मैं ही!’’ बन्दी नरेश नेआगे बढ़ थाम लियाहाथ राजनापित काकरुणामय प्रेम सेऔर उठे बोलगंभीर धीर स्वर में...‘‘कल के मगधराजआज राजबंदी हैंफिर भी प्रसन्न हैंक्योंकि आदेश यही न्याय यही शासन का।प्रश्न जब समष्टि काप्रश्न जब समूह काप्रश्न जब स्वदेश कासम्मुख उपस्थित होव्यक्ति का विचार तबअनुचित ही होगामेरे देहान्त मेंसुभग रूप भावी कामंगल स्वदेश कादेखते मगधराजअतएव तथ्य-हीननिर्णय न उसकामंगल हो मगध काऔर मगधराज कानापित! न भूलो तुमपालन कर्तव्य कापरम धर्म होता है;बंदी तैयार हैचीरा लगाओ तुमपैरों में मेरे।’’ और बाद इसकेकांड वह घोर हुआजिसके उल्लेख सेपृष्ठ इतिहास केकाले हैं आज तकजिसकी उत्ताप भरीस्मृति के कचोट सेउठतीं कराह गिरि-पंक्तियां उल्लास औरबस्ती उजाड़-सीभग्न राजगृह की! बिंबसार बैठे थेमानो बुद्ध बैठे होभूल संसार कोलीन अटल ध्यान मेंहोती विकीर्ण थींकिरणें प्रकाश कीउनके प्रशांत, सौम्य,दीप्त मुख-मंडल सेकांपते थे वज्र-सेनिठुर हाथ नापित केकिंतु काम करता थालौह-यंत्र शल्य काबहती थी रक्त-धारपी-पीकर भूमि जिसेप्यास निज बुझाती थीचलता था हाथ औरलौह-यंत्र चलता था,गिरते थे मांस केकट-कट कर टुकड़े,दांतों को यद्यपिनरेश थे दबाएतो भी कराह औरआह निकल जाती थी,कांप-कांप उठता थाशून्य * [[तप्तगृह का! और जब यंत्र रुकासुलग उठी एक ओरनापित की सांस सेआह सर्वनाश की;मानी रूप धारण करआई हो यातनाजीभ निज निकालेहड्डियों के रक्त कोचाटने उमंग सेचीरना समाप्त हुआव्रण में तब लौन भर भरने अंगार लगेक्रूर कर नापित के!वक्ष तान, सांसों कोरोक लिया नृप ने,नसें लगीं फूलनेफूलती शिराएं ज्योंआग्नेय पर्वत कीपहले विस्फोट के,नेत्र लाल हो गएमानो अवशेष रक्तसारे शरीर काछांह में पुतलियों कीकेंद्रित हुआ हो।लौन की जलन तीव्रपीड़ा का ताप औरताप निठुर ग्रीष्म काताप तप्त अग्नि काहो उठा असह्य औरभीषण चीत्कार करबिंबसार लोट गएमूर्च्छित हो भूमि पर! हाय, रो प्रवंचने!सत्ता की लिप्सा काकैसा कठोर रूप तूने बनाया हैऔर स्वयं कितनी तूप्यासी है रक्त की!सत्ता के प्यार कीभट्ठी बन रात-दिनजलती तू नरक-सीस्वार्थ के पिशाच कीतू वह कुटिल शक्तिनागिन-सी जो कहींविष है उगलती,और कहीं हिंसा काचक्र चलाती;रुकती गति जीवन कीकिंतु नहीं तेरी गतिरुकती है विश्व में!</poem>सर्ग 11 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात']]