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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
झूम कर गिरते समय कहते हैं लहराया बहुत
जो शजर देता हमें था धूप में साया बहुत।
धीरे-धीरे किस्त में काटा गया था जिस्म को
मौत बख्शी तो मगर क़ातिल ने तड़पाया बहुत।
जितनी दौलत दे गया उतना बड़ा परिवार दे
कम अधिक होने पे देता कष्ट सरमाया बहुत।
हमने बोई थी जड़ी-बूटी बहुत सी खेत में
जाने कैसे दोस्त ख़र-पतवार उग आया बहुत।
इश्क़ देगा ज़ख़्म लाखों, मशविरे ढेरों मिले
हम समझ पाए न कुछ, बहुतों ने समझाया बहुत।
गांव का घर बेच हम दिल्ली चले आये मगर
ज़िन्दगी भर आह निकली याद घर आया बहुत।
उससे मिलकर खुश हुए सब लोग लेकिन जाने क्यों
वो गले लगते समय 'विश्वास' घबराया बहुत।
</poem>
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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
झूम कर गिरते समय कहते हैं लहराया बहुत
जो शजर देता हमें था धूप में साया बहुत।
धीरे-धीरे किस्त में काटा गया था जिस्म को
मौत बख्शी तो मगर क़ातिल ने तड़पाया बहुत।
जितनी दौलत दे गया उतना बड़ा परिवार दे
कम अधिक होने पे देता कष्ट सरमाया बहुत।
हमने बोई थी जड़ी-बूटी बहुत सी खेत में
जाने कैसे दोस्त ख़र-पतवार उग आया बहुत।
इश्क़ देगा ज़ख़्म लाखों, मशविरे ढेरों मिले
हम समझ पाए न कुछ, बहुतों ने समझाया बहुत।
गांव का घर बेच हम दिल्ली चले आये मगर
ज़िन्दगी भर आह निकली याद घर आया बहुत।
उससे मिलकर खुश हुए सब लोग लेकिन जाने क्यों
वो गले लगते समय 'विश्वास' घबराया बहुत।
</poem>