भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय सिंह नाहटा |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय सिंह नाहटा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
शरद संध्या
कोहरे में लिपटी हुई
सरहद पर घूमता एक सजग प्रहरी।
रखता महफ़ूज
शिराओं में बहता आदमजात खून।
खून जिसका कोई नाम नहीं-मूल्यहीन
जिसकी कोई सरहद नहीं
घर नहीं देश नहीं
धर्म नहीं जाति नहीं
आसमां औ' सरजमीं भी नहीं।
बिना पारपत्र का सैलानी
अस्तित्व के भूगोल में अनादि से
भटकता सार्वभौम।
कहने को भले लाल
पर, रंगहीन है यह
पारदर्शी, अकाट्य औ' आत्यंतिक।
थरथराता एक पुल:
जोड़ता एक जीवन को किसी अन्य जीवन से
निचली घाटियों को हिमशिखरों से
शिखरों को धरती के अतल में छितराई अंधेरी छाया घाटियों से
तरल चट्टान: अदृश्य
जिस पर चहलकदमी करती सुबह की चिड़ियाएँ
चोंच में उठाती रचना का 'क' ।
और: फिर कुछ यूं निकल चलता
जीवन का कारोबार।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय सिंह नाहटा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
शरद संध्या
कोहरे में लिपटी हुई
सरहद पर घूमता एक सजग प्रहरी।
रखता महफ़ूज
शिराओं में बहता आदमजात खून।
खून जिसका कोई नाम नहीं-मूल्यहीन
जिसकी कोई सरहद नहीं
घर नहीं देश नहीं
धर्म नहीं जाति नहीं
आसमां औ' सरजमीं भी नहीं।
बिना पारपत्र का सैलानी
अस्तित्व के भूगोल में अनादि से
भटकता सार्वभौम।
कहने को भले लाल
पर, रंगहीन है यह
पारदर्शी, अकाट्य औ' आत्यंतिक।
थरथराता एक पुल:
जोड़ता एक जीवन को किसी अन्य जीवन से
निचली घाटियों को हिमशिखरों से
शिखरों को धरती के अतल में छितराई अंधेरी छाया घाटियों से
तरल चट्टान: अदृश्य
जिस पर चहलकदमी करती सुबह की चिड़ियाएँ
चोंच में उठाती रचना का 'क' ।
और: फिर कुछ यूं निकल चलता
जीवन का कारोबार।
</poem>