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{{KKRachna
|रचनाकार=अंकिता जैन
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मातृत्व ने भर दिया है
इतना पानी मेरे कलेजे में,
कि अब
गुब्बारे-झंडे-फूल बेचते,
जूते-गाड़ियाँ-बरतन चमकाते,
रेल के फर्श पर अपने अँगोछे से पोंछा लगाते,
सड़कों पर सर्द रात में तौलिया बाँध उकड़ू सो जाते
भूखे उदर देख-देख
मेरी योनि में जन्म सी पीड़ा कौंधती है
मचल उठती है मेरी ममता
इन अनगिनत मासूमों को बैठाकर,
पंखा झलकर खिलाने भरपेट भोजन
मगर, ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ती चाहत
रह-रहकर मेरे कलेजे का पानी
आँखों से छलकाती रहती है।
</poem>
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|संग्रह=
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मातृत्व ने भर दिया है
इतना पानी मेरे कलेजे में,
कि अब
गुब्बारे-झंडे-फूल बेचते,
जूते-गाड़ियाँ-बरतन चमकाते,
रेल के फर्श पर अपने अँगोछे से पोंछा लगाते,
सड़कों पर सर्द रात में तौलिया बाँध उकड़ू सो जाते
भूखे उदर देख-देख
मेरी योनि में जन्म सी पीड़ा कौंधती है
मचल उठती है मेरी ममता
इन अनगिनत मासूमों को बैठाकर,
पंखा झलकर खिलाने भरपेट भोजन
मगर, ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ती चाहत
रह-रहकर मेरे कलेजे का पानी
आँखों से छलकाती रहती है।
</poem>