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Kavita Kosh से
गिरते कभी सँभलते हुए।
अब हैं, आहटों की प्रतीक्षा करते,
श्वासों के स्वर ढ़लते ढलते हुए।चुपचाप हँसी विदा हो गयीगई,
अन्तर्द्वन्द्वों में मचलते हुए।
कुछ झुर्रियों से था संघर्ष,
बूँदें नयनों से निकलते हुए।
इन्हीं सिकुड़ी आँखों को भिगोकर,
रातें बुढ़ापे ने बितायी बिताई करवट बदलते हुए।
तुम क्या जानों मेरी व्याकुलता,
अभी तो जवानी आयी है, आँखें मलते हुए।