भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मोल हवा का / रामकिशोर दाहिया

1,355 bytes added, 07:11, 16 अप्रैल 2021
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामकिशोर दाहिया }} {{KKCatNavgeet}} <poem> धुआँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
धुआँ उड़ाते
रात काट दी
हाँहें-साँसें दिन में
बनी प्रतिष्ठा
लगी दाँव में
पलक झपकते छिन में।

अगर भूल से
भूल हुई तो
किया नहीं अनदेखा
रहे भगीरथ
कर्म सदा से
खींची लम्बी रेखा
हरे आज भी
जख़्म पुराने
दवा लगाई जिनमें।

मोल हवा का
तब कुछ समझे
साँसें रुकीं अचानक
गुब्बारे-सा उड़े
गगन में
टूटे पड़े कथानक
जीवन भर
हम रहे नाचते
छोटी-छोटी पिन में।

अपने चित की
बात करें क्या
डर कर चलता है
नब्ज समय की
पकड़ हाथ में
दूर निकलता है
चिंताओं के
तोड़ बखेड़े
बँधने लगा सुदिन में।

-रामकिशोर दाहिया

</poem>