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|रचनाकार=महमूद दरवेश
|अनुवादक=मौहम्मद अफ़ज़ल खान
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<poem>
हमारी ज़मीन तंग होती जा रही है
ज़मीन हमें धकेल रही है ऐसी गलियों में
जहाँ दीवार से दीवार लगती है
सो गुज़रने के लिए अब यही इक रास्ता है
कि हम अपने अंगो को काटकर फेंक दे

ज़मीं हमें भींच रही है
काश ! हम ज़मीं पर उगी
कोई फ़सल होते
वहीं पर गिरते और वहीं पर उग आते

काश ! ज़मीन हमारी माँ होती
या माँ जैसी मेहरबाँ होती
काश ! हमारे वजूद पत्थर होते
उनसे आईने तराश कर हम
अपने ख़्वाबों का अक्स बन जाते

हमने देखा है उन लोगों का चेहरा
जिन बच्चों का ख़ून
अपनी आत्मा की रक्षा की अन्तिम लड़ाई में
हमारे हाथों से होगा
हम उनके बच्चो का भी मातम करते है

हमने देखा है उन लोगों का चेहरा
जो हमारे बच्चों को
इस आख़िरी पनाहगाह से भी देशनिकाला देंगे
आख़िरी सरहद के बाद भला कोई कहाँ जाए
आख़िरी आकाश के बाद परिन्दे
किस ओर उड़ान भरें ?

हवा के आख़िरी झोंके के बाद
फूल कहाँ जाकर सांस लें ?
हम इक लहू रंग की चीख़ से दे देंगे
अपने होने का सबूत
हम अपने गीतों के हाथ काट देंगे
लेकिन हमारा शरीर गाता रहेगा

हमारा मरना यहीं पर होगा
इसी आख़िरी जगह पर ….
यही पर हमारा खून उगाएगा
जैतून का दरख़्त
</poem>
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