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मज़ारों पर चढ़े भगवा, हरा सिंदूर हो जाए।
लहू हो या पसीना हो बस इतना चाहता हूँ मैं,
निकलकर जिस्म से मेरे न ये मगरूर मग़रूर हो जाए।
जहाँ मरहम लगाते हैं वहीं फिर घाव देते हैं,
कहीं ये दिल्लगी उनकी न इक एक नासूर हो जाए।
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