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लाख कोशिश करने पे पर भी मेरे कमरे की खिड्की बंध खिड़की बंद नहीं होतीहोती।लगता है कभी -कभी तो बंध बंद भी हो जाए ये खिड्कीयह खिड़की,मगर खुला रहने पे पर भी दिल पे पर कुछ सुकुनसुकून-सा होता रहता है।
हर लम्हा हवाओं की तरह उड़ कर उड़कर आने वाले वाली यादों के झोक्कों झोंकों से खुलने वाली यह खिड़की
हरदम खुलती ही रहती है।
इन पत्तों पे पर मेरा बचपन का की खुशबू हैहै।सब सभी काम छोड़कर मै मैं पत्तों से खेलना शुरू करता हूँ ।हूँ।
खुली हुई खिड़की से मैं गावँ गांव की मील के पिछवाड़े जमीन तक आकर खत्म होने वाले आसमान को देखता हूँ।
मील की टुकटुक करती आवाज
कहीं बज रहे ढोल और दमाहा के साथ घुलकर आ रही है और दादीमाँ दादी माँ की आवाज को जिन्दा जीवित कर रही है। घर के पिछवाड़े पे उन के पर उनके सुखाए हुए कपड़ेहावाओं हवा में फहराता फहराते जा रहा है। रहे हैं।
खिड़की बन्द बंद कर लूँ -शाम को घर लौटती हुई गायों के पैरों से उड़ कर उड़कर आनी वाली धूल के सूक्ष्म हाथ खोल देते हैं उसे।
और खोल देता है खिड़की।
जितना भी कोशिश कर लूँ,यह खिड़की बन्द बंद नहीं होती।
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