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<poem>
अहं का काला सूरज
सिर के ऊपर चढ़ता है
चढ़कर सिर पर
धीरे-धीरे सघन बनता है
फैलता है

फिर क्रमशः
घटाता है इंसान की ऊँचाई।
</poem>
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