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::तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ।<br>::ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥२॥<br>
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::परब्रह्म का स्पर्श दर्शन इन्द्र अग्नि वायु ने,<br>::कर प्रथम जाना ब्रह्म को, लगे ब्रह्म को पहचानने।<br>::ये श्रेष्ठ अतिशय देवता, विश्वानि विश्व प्रणम्य है,<br>::इनके ह्रदय में ब्रह्म तत्व का मर्म अनुभव गम्य है॥ [ २ ] <br><br>
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::तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदाइतीन् ।<br>::न्यमीमिषवदा इत्यधिदैवतम् ॥४॥<br>
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::जब हृदय में उत्कट पिपासा ब्रह्म , के साक्षात को,<br>::जागृत हो तब सर्वज्ञ देता, क्षणिक दर्शन भक्त को।<br>::उपदेश दिव्य है आधिदैविक मर्म जाने भक्त ही,<br>::जब इष्ट के साक्षात बिन , मन व्यथित व्याकुल हर कहीं॥ [ ४ ]<br><br>
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::तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य ।<br>::एतदेवं वेदाभि हैनँ सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥६॥<br>
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::सब प्राणियों को विश्व में , प्रिय परम प्रभु परमेश है,<br>::उसका निरंतन नित्य चिंतन, भक्त का उद्देश्य है।<br>::जो भक्त ईशमय हो सके, आनंदमय होता वही,<br>::आत्मीय बन कर विश्व का, सम्मान पाता हर कहीं॥ [ ६ ] <br><br>
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::तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥८॥<br>
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::जो लक्ष्य ब्रह्म को मानकर, निष्काम तप, दम, भाव से,<br>::करें वेद धर्म का आचरण, यदि अमिय सिक्त स्वभाव से।<br>::सर्वस्य परब्रह्म ब्रह्मविद्या, प्राप्त कर सकते वही,<br>::वही सर्वथैव असाध्य ब्रह्म को, साध्य कर सकते मही॥ [ ८ ] <br><br>
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