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{{KKRachna
|रचनाकार=शार्दुला नोगजा
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<poem>
दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !
</poem>