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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=सूर्य से सूर्य तक / अवतार एनगिल
}}
<poem>मां कहती है कि
कल रात मैं नींद में चीखा
और बड़बड़ाया रात भर
...
मां नहीं जानती
में सपनों में चल रहा था :
मेरे चारों ओर
धुएं को आकृतियों का जंगल
जंगल में करोड़ों परछाईनुमा आदमी
काली ज़मीन पर
कीलों से गड़े हैं
परछाईयों से पड़े हैं
क्या देखता हूँ
कि एक दूसरा 'मैं'
सलीबों के बीचों-बीच चल रहा है
जंगल धीमा-धीमा जल रहा है
और सामने
सैंकड़ों सफेद सीढिंयां,
सबसे नीचे की सीढ़ी पर एक मूर्ति
लिए हात में गाला गुलाब
वह 'मैं' बाजू फैला कर
सीढियां चढ़ रहा है
कुछ सीढ़ियां चढ़कर देखता है
गुलाब तो उतना ही दूर है।
मर्मरी सीढ़ियों के दोनों तरफ है
बेहिसाब दूत
हंसते-रोते भूत
मांगते हैं जो
शीशियों में खून
तभी चढ़ पाता हूं मैं
कुछ विशाल सीढ़ियां
पर ये दूत, बढ़े जाते हैं
मेरी सांस जैसे चुक रही है
धड़कन जैसे रुक रही है
हर कदम पर जो खड़े हैं
कीलों-से जो गड़े हैं
कैसे जानेंगे ये सब
कि यही तो है वह गुलाब
मेरे 'मैं' की तपस्या का सच
अम्बर के मठ से
भिक्षु-चांद झांक रहा है
मैं बहुत ऊँचा पहुंच गया हूं
या गुलाब ही झुक आया है ?
अब यह साफ दिख रहा है
इसकी स्याह-गुलाबी रंगत धड़क रही है
और अब
यह सुर्ख भी हो चला है
सारे का सारा दहक रहा है
भट्टी से निकले हुए सुर्ख-लोहे-सा
सुलोचना का विरह सहेज कर
कैलाश पर भटकते
अग्नि-वास करते हुए
मेघनाद सा
और 'मैं' चीख़ उठता है :
'गुलाब ! मेरे गुलाब !
कितनी लम्बी है मेरी तपस्या ?'
और मां कहती है
कि कल रात मैं नींद में चीखा
और बड़बड़ाया रात भर
मां नहीं जानती
मैं सपनों में चल रहा था
मेरे चारों तरफ धीरे-धीरे
एक जंगल जल रहा था
सामने थी सैंकड़ों मर्मरी सीढ़ियां
सबसे नीचे की सीढ़ी पर मैं
सबसे ऊपर की सीढ़ी पर एक मूर्ति
लिये हाथ में काला गुलाब।
---एक सपने पर आधारित
</poem>
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|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=सूर्य से सूर्य तक / अवतार एनगिल
}}
<poem>मां कहती है कि
कल रात मैं नींद में चीखा
और बड़बड़ाया रात भर
...
मां नहीं जानती
में सपनों में चल रहा था :
मेरे चारों ओर
धुएं को आकृतियों का जंगल
जंगल में करोड़ों परछाईनुमा आदमी
काली ज़मीन पर
कीलों से गड़े हैं
परछाईयों से पड़े हैं
क्या देखता हूँ
कि एक दूसरा 'मैं'
सलीबों के बीचों-बीच चल रहा है
जंगल धीमा-धीमा जल रहा है
और सामने
सैंकड़ों सफेद सीढिंयां,
सबसे नीचे की सीढ़ी पर एक मूर्ति
लिए हात में गाला गुलाब
वह 'मैं' बाजू फैला कर
सीढियां चढ़ रहा है
कुछ सीढ़ियां चढ़कर देखता है
गुलाब तो उतना ही दूर है।
मर्मरी सीढ़ियों के दोनों तरफ है
बेहिसाब दूत
हंसते-रोते भूत
मांगते हैं जो
शीशियों में खून
तभी चढ़ पाता हूं मैं
कुछ विशाल सीढ़ियां
पर ये दूत, बढ़े जाते हैं
मेरी सांस जैसे चुक रही है
धड़कन जैसे रुक रही है
हर कदम पर जो खड़े हैं
कीलों-से जो गड़े हैं
कैसे जानेंगे ये सब
कि यही तो है वह गुलाब
मेरे 'मैं' की तपस्या का सच
अम्बर के मठ से
भिक्षु-चांद झांक रहा है
मैं बहुत ऊँचा पहुंच गया हूं
या गुलाब ही झुक आया है ?
अब यह साफ दिख रहा है
इसकी स्याह-गुलाबी रंगत धड़क रही है
और अब
यह सुर्ख भी हो चला है
सारे का सारा दहक रहा है
भट्टी से निकले हुए सुर्ख-लोहे-सा
सुलोचना का विरह सहेज कर
कैलाश पर भटकते
अग्नि-वास करते हुए
मेघनाद सा
और 'मैं' चीख़ उठता है :
'गुलाब ! मेरे गुलाब !
कितनी लम्बी है मेरी तपस्या ?'
और मां कहती है
कि कल रात मैं नींद में चीखा
और बड़बड़ाया रात भर
मां नहीं जानती
मैं सपनों में चल रहा था
मेरे चारों तरफ धीरे-धीरे
एक जंगल जल रहा था
सामने थी सैंकड़ों मर्मरी सीढ़ियां
सबसे नीचे की सीढ़ी पर मैं
सबसे ऊपर की सीढ़ी पर एक मूर्ति
लिये हाथ में काला गुलाब।
---एक सपने पर आधारित
</poem>