भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
जैसे बच्चे के हाथों में
पूरे हफ़्ते की ’जेबखर्ची’ के सिक्के।
जितना कसके पकड़ता हूँ.. कमबख्तकमबख़्त!
फिसलते जाते हैं यूँ ही।
जैसे फिसले थे तेरे सुर्ख लबों से उस दिन,