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"[[पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ४]]" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))
:उत्तर देते हुए उसे फिर, निज गम्भीर भाव लाये-
"सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ, तुमनो तुमको सहसा देख यहाँ,
:ढलती रात, अकेली बाला, निकल पड़ी तुम कौन कहाँ?
पर अबला कहकर अपने को, तुम प्रगल्भता रखती हो,
:निर्ममता निरीह पुरुषों में, निस्सन्देह निरखती हो!
</poem>
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