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देर से / निदा फ़ाज़ली

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|संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली
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<poem>
कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
कहीं छत थी, दीवारोहुआ न कोई काम मामूल सेगुजारे शबों-दर थे कहीं<br>रोज़ कुछ इस तरहमिला मुझको कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त परकभी घर का पता देर से<br>दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे<br>मगर जो दिया वो दिया में सूरज उगा देर से<br><br>
हुआ न कोई काम मामूल से<br>गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह<br>कभी रुक गये राह में बेसबबकभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर<br>से पहले घिर आयी शबकभी घर में सूरज उगा हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सबजहाँ भी गया मैं गया देर से<br><br>
कभी रुक गये राह में बेसबब<br>ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल हैकभी वक़्त से पहले घिर आयी शब<br>यही है जुदाई, यही मेल हैहुए बन्द दरवाज़े खुलमैं मुड़-खुल मुड़ के सब<br>देखा किया दूर तकजहाँ भी गया मैं गया बनी वो ख़मोशी, सदा देर से <br><br>
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है<br>सजा दिन भी रौशन हुई रात भीयही है जुदाई, यही मेल है<br>भरे जाम लगराई बरसात भीमैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक<br>रहे साथ कुछ ऐसे हालात भीबनी वो ख़मोशी, सदा जो होना था जल्दी हुआ देर से <br><br>
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी<br>भरे जाम लगराई बरसात भी<br>रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी<br>जो होना था जल्दी हुआ देर से <br><br> भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी <br>मिली न कहीं से कोई रौशनी<br>छुपा था कहीं भीड़ में आदमी<br>
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से
</poem>
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