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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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दरवाज़ा
खुला रखो
न जाने कब..
चली आयेगी..खुशबू...
लहराती पुरवाई के साथ..

दरवाज़ा ..
खुला रखो
न जाने कब..
पार कर लें..कदम
अहिस्ता से दहलीज..

दरवाज़ा ..
खुला रखो ..
गम न हो कि..
वक़्त निकल गया..
चुपचाप..बेआवाज़...
दबे पाँव..

दरवाज़ा ..
खुला रखो ..
ताकि बदलता रहे..
पर्दा भी..
मौसम के मिजाज...

दरवाज़ा ..
खुला रखो ..
कहीं.. ज़िल्लत न हो..
देख कर.. अपना ही अक्स...
औरों के आईने मैं...

दरवाज़ा ..
खुला रखो
नजरें धुंधली और
नज़रिए तंग न हो..
घुटा घुटा सा दम .. सांसे नज़रबंद न हों..
</poem>