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{{KKRachna
|रचनाकार=मंजुला सक्सेना
|संग्रह=
}}
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<poem>
छू न पायेंगे ह्रदय की घाटियों को
ग्रीष्म के उजाले फुएं से मेह.
ओ हवाओं इन फुओं को ले उडाओ
झलकने दो शांत नभ का नेह .
बादलों का प्रेम निष्ठुर बींध देता देह
कभी रिमझिम, कभी गर्जन-क्रूर भर हुंकार
आँधियों सा उमड़ता तो कभी चक्रावात ,
कभी ओलों सा बरसकर बन गया एक भार .
घाटियों की भूमि नाम है मत करो अघात
गुनगुनाती धूप से दो भूमि को श्रृंगार ,
उलसने दो बीज फूलों के बनो वातास ,
प्रेम में स्पर्श दैहिक खोजो न साभार ,
मुक्त फूलों की महक है मुक्त रश्मि-विलास
मुक्त है उर मुक्त है स्वर मुक्त मधुकण हास
मुक्ति सबकी कामना है मुक्ति में हैं राम
'''लेखन काल: २७-२-२००९'''
</poem>
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छू न पायेंगे ह्रदय की घाटियों को
ग्रीष्म के उजाले फुएं से मेह.
ओ हवाओं इन फुओं को ले उडाओ
झलकने दो शांत नभ का नेह .
बादलों का प्रेम निष्ठुर बींध देता देह
कभी रिमझिम, कभी गर्जन-क्रूर भर हुंकार
आँधियों सा उमड़ता तो कभी चक्रावात ,
कभी ओलों सा बरसकर बन गया एक भार .
घाटियों की भूमि नाम है मत करो अघात
गुनगुनाती धूप से दो भूमि को श्रृंगार ,
उलसने दो बीज फूलों के बनो वातास ,
प्रेम में स्पर्श दैहिक खोजो न साभार ,
मुक्त फूलों की महक है मुक्त रश्मि-विलास
मुक्त है उर मुक्त है स्वर मुक्त मधुकण हास
मुक्ति सबकी कामना है मुक्ति में हैं राम
'''लेखन काल: २७-२-२००९'''
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