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14:12, 14 सितम्बर 2010
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
::तुम कालचक्र के रक्त सने
::दशनों को करके कर से पकड़ सुदृढ़, ::मानव को दानव के मुंह मुँह से
::ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
पिसती कराहती जगती के
प्राणों में भरते अभय दान,
अधमरे देखते हैं तुमको,
किसने आकर यह किया त्राण?
दृढ ::दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से ::तुम कालचक्र की चाल रोक, ::नित महाकाल की छाती पर ::लिखते करुणा के पुण्य श्लोक! कंपता कँपता असत्य, कंपती कँपती मिथ्या, बर्बरता कंपती कँपती है थरथर! कंपते कँपते सिंहासन, राजमुकुट कंपतेकँपते, खिसके आते भू पर, हे ::हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित, ::सेनायें करती गृह-प्रयाण! ::रणभेरी तेरी बजती है, उङता ::उड़ता है तेरा ध्वज निशान! हे युग-दृष्टा, हे युग-स्त्रष्टास्रष्टा, पढते पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र? इस राजतंत्र के खंडहर खँडहर में उगता अभिनव भारत स्वतन्त्रस्वतंत्र!
</poem>
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