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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार विश्वास
|अनुवादक=|संग्रह= कोई दीवाना कहता है / कुमार विश्वास
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<poem>
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज आता रहा, रोज जाता रहा
तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा
तुम गज़ल बन चली गई, गीत में ढल गई मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा ज़िन्दगी के सभी रास्ते एक थे सबकी मंज़िल तुम्हारे चयन तक रही अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद् मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं प्राण के प्रश्न पर प्रीति की अल्पना तुम मिटाती रहीं मै बनाता रहा तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा एक खामोश हलचल बनी ज़िन्दगी गहरा ठहरा हुआ जल बनी ज़िन्दगी तुम बिना जैसे महलों मे बीता हुआ उर्मिला का कोई पल बनी ज़िन्दगी दृष्टि आकाश मे आस का एक दिया तुम बुझाती रही, मै जलाता रहा तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा तुम चली तो गई मन अकेला हुआ सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ जब कब भी लौटी नई खुशबूऒं मे खुशबुओं में सजी मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर रूठती तुम रही मै मनाता मैं मानता रहा तुम गज़ल ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से मै तुम्हे में तुम्हें गुनगुनाता रहा मै तुम्हे ढूंढने मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक गया रोज़ जाता रोज आता रहा , रोज़ आता रोज जाता रहा</poem>