भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शहर / अरविन्द कुमार खेड़े
Kavita Kosh से
शहर की तमाम
अच्छाई-बुराई को दरकिनार कर
मैंने कर लिया है
शहर को आत्मसात
एकाएक शहर ने मुझे
नकार दिया है
खफा होकर दे डाली है
मुझे चुनौती
जिसे मैंने भी
सहर्ष स्वीकार ली है
अंजाम की परवाह किये बिना
अब एक तरफ मैं हूँ
दूसरी तरफ शहर है
और हादसे का इंतजार है।