शहर सो गया है!/ हरीश भादानी
शहर सो गया है!
औज़ार से खेलते
एक संसार के सोच को
आर से पार तक बींधता
एक तीखा सा
बजता हुआ सायरन
बस, गया है अभी
और बोले बिना
साख भर छापकर
धूप को सांटता
आकाशिया भी सरका अभी
यूं घिसटता चले
जैसे तन बोझ भर रह गया है !
शहर सो गया है!
रची आँख ने दोपहर
साँझ माँडी
खिड़कियों, गली
और माटी लिपे आँगन
फ़क़त एक जबड़े से निकला
धुआँ धो गया है !
शहर सो गया है!
बैठा हुआ था बाजार में जो
अभी शोर का संतरी
उगे मौन के जंगलों में
सहमा हुआ खो गया है!
शहर सो गया है!
बुत रोशनी के
सड़क के किनारे
लटका दिये सूलियों पर
अँधेरी अँगुलियों में
स्वर रूँध गया है!
शहर सो गया है!
आग-पानी के नद पार पर
घास का एक बिस्तर
बिछाया है उसने
तमोलो-चमोलों चढ़ी
काँच से झाँकती
रोशनी को अँगूठा दिखा कर
ओढ़ कर थकन की
फटी-सी रजाई
छाती में घुटने
धँसा, सो गया है !
शहर सो गया है !