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शिशिर : दो / नंद चतुर्वेदी
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शिशिर ने माँ से कहा
लीलावती किवाड़ खोलो
सूरज की किरणों का
कोट पहने खड़ी थी हवा
धुँध की छोटी-छोटी डोरियों से बना था
सुनहरी रोशनी का मण्डप
दुपहर से शाम तक
वृक्षों के बीच
निश्चित सोया था दिन
माँ छत पर गयीं
सुखाई हुई दाल समेटने के लिए
चिड़ियाँ जिन्हें चुगती-चुगती
उड़ गयी थीं
शाम के रंग जिनके पंखों पर
चमक कर
विलीन हो गये थे
पीले पत्तों का ढेर आँगन में लगा था
शिशिर जब बीत जाएगा
लम्बे दिन होंगे
पेड़ों की रोशन-छायाओं से लिपटे
माँ अपना पुराना स्वेटर रखेंगी
जतन से सन्दूक में।