समुद्र - 2 / रुस्तम
समुद्र हर कहीं था। तुम उससे घिरे हुए थे। एक दीवार जो
फैलती जाती थी — तुम उसे लाँघ नहीं पाते थे।
समुद्र तुम्हें अकेले नहीं छोड़ता था। न हवा जिसे वह भेजता
था। हवा तुम्हारी रूह में घुस जाती थी। तुम काँपते थे,
फिर और काँपते थे।
समुद्र कहीं पास में होता था। फिर वह और पास आ
जाता था। उसका डंक सदा तुम्हें बस छूने को था और
नष्ट करने को। तुम नष्ट होना चाहते थे। क्या ऐसा नहीं
था? इसीलिए तुम समुद्र को चाहते थे।
लेकिन समुद्र तुम्हें भरमाता था। समुद्र रूप बदलता था।
वह छल से भरा हुआ था। तुम उसके जाल में फँस जाते
थे। उसकी कुटिल मुस्कान तुम्हें नज़र नहीं आती थी। तुम्हें
बस दीखते थे असंख्य दर्पण-दृश्य। समुद्र तुम्हें दर्पण में
ले जाता था। शायद समुद्र स्वयं एक दर्पण था उस दर्पण
में। या किसी अन्य दर्पण में।