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सर्द सुबह की धूप शकुंतला / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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बहुत अच्छा लगा जयपुर में थोड़े से वक्त में
बहुत सा समय आपके साथ बिताना
देर रात तक
कविताएँ सुनना-सुनाना
आपका मेरे लिए कविताओं का चयन करना
क्रम से लगवाना
इधर-उधर की बात कर हँसना-हँसाना
माँ को याद कर आपकी आँखों का भर आना
दर्द को गुनगुनाना लिखना, सहना
और हर काम में रम जाना
कठिन से कठिन रास्ते को सरलता से पार कर जाना
हार कर भी हार न मानना
सर्द सुबह की गुनगुनी धूप सा खिलना
सब से हँसते हुए ही मिलना, जब भी मिलना
उदासियों के साथ ही सजना-संवरना
यह हुनर आपसे सीखा

पर शकुन्तला जी क्या यह सच नहीं है
कि जब आप गाती हैं तो गाती नहीं
असल में रोती हैं

हर शब्द आँसुओं में भीगा होता है
हर गीत अतल गहराइयों से उठती पुकार जैसा होता है
माँ के हालात, पापा की याद में शराबोर होता है
हर श्रोता स्वयं को उस बहाव में बहने देता है
जाने वक्त भी कैसे इम्तिहान लेता है

गीत और कविता से भी बड़ी है दुनिया आपके मन की
जितनी आज तक लिखी गई उनसे दुगुनी कविताएँ तो वहाँ
उग रही हैं पौधों-सी
खिल रही हैं गुलाबों सी
उनमें से कुछ
चुभ रही हैं शूलों सी
उन्हीं में से चुनें आज फिर एक कविता और गुनगुनाएँ
समवेत स्वर में
प्यार को इसी तरह पाएँ और सब पर लुटाएँ