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सलीब / विजय कुमार सप्पत्ति

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कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे - कराहे नही निकलती है..!

बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!

हँसता हूँ मैं ,
कि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...

सुना है , सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब ,
आज भी दिखती है ...

मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....