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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ५

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उठ भरत ने धर लिया झट हाथ,
और वे बोले व्यथा के साथ--
"मारते हो तुम किसे हे तात!
मृत्यु निष्कृत हो जिसे हे तात?
छोड़ दो इसको इसी पर वीर,
आर्य-जननी-ओर आओ धीर!"

युगल कण्ठों से निकल अविलम्ब
अजिर में गूँजी गिरा--"हा अम्ब!"
शोक ने ली अफर आज डकार--
वत्स हम्बा कर उठे डिडकार!
सहन कर मानों व्यथा की चोट
हृदय के टुकड़े उड़े सस्फोट--
"तुम कहाँ हो अम्ब, दीना अम्ब,
पति-विहीना, पुत्र-हीना अम्ब!
भरत--अपराधी भरत--है प्राप्त,
दो उसे आदेश अपना आप्त।
आज माँ, मुझ-सा अधम है कौन?
मुँह न देखो, पर न हो तुम मौन।
प्राप्त है यह राज्यहारी दस्यु,
दूर से षड़यंत्रकारी दस्यु।
आगया मैं--गृहकलह का मूल;
दण्ड दो, पर दो पदों की धूल।"

"झूठ,-यह सब झूठ, तू निष्पाप;
साक्षिणी तेरी यहाँ मैं आप।
भरत में अभिसन्धि का हो गन्ध,
तो मुझे निज राम की सौगन्ध।
केकयी, सुन लो बहन यह नाद,
ओह! कितना हर्ष और विषाद!"
पूर्ण महिषी का हुआ उत्संग,
जा गिरा शवरीशरार्त - कुरंग।
"वत्स रे आ जा, जुड़ा यह अंक;
भानुकुल के निष्कलंक मयंक!
मिल गया मेरा मुझे तू राम,
तू वही है, भिन्न केवल नाम।
एक सुहृदय, और एक सुगात्र,
एक सोने के बने दो पात्र।
अग्रजानुज मात्र का है भेद,
पुत्र मेरे, कर न मन में खेद।
केकयी ने कर भरत का मोह,
क्या किया ऐसा बड़ा विद्रोह?
भर गई फिर आज मेरी गोद,
आ, मुझे दे राम का-सा मोद।
किन्तु बेटा, होगई कुछ देर,
सो गये हैं देव ये मुहँ फेर!
हो गई है हृदय की गति भग्न,
तदपि अब भी स्नेह में हैं मग्न!
देख लो हे नाथ, लो परितोष;
जननियों के पुत्र हैं निर्दोष।"
नाव में नृप किन्तु पाँव पसार,
सुप्त थे भव-सिन्धु के पर-पार।

"हा पिता, यों हो रहे हो सुप्त;
क्या हुई वह चेतना चिरलुप्त?
जिस अभागे के लिए यह काण्ड
आ गया वह भर्त्सना का भाण्ड!
शास्ति दो, पाओ अहो! आरोग्य,
मैं नहीं हूँ यों अभाषण-योग्य।
त्याज्य भी यह नीच हे नरराज,
हो न अन्तिम वचन-वंचित आज!"
"राज्य तुमको दे गये नरराज,
सुत, जलांजलि दो उन्हें तुम आज!
दे तुम्हें क्या वत्स, मेरा प्यार?
लो तुम्हीं अन्त्येष्ठि का अधिकार।
राज्य"--"हा! वह राज्य बन कर काल,
भरत के पीछे पड़ा विकराल!
यह अराजक उग्र आज नितान्त,
प्राण लेकर भी न होगा शान्त!"
"वत्स, धीरे, कठिनता के साथ,
सो सके हैं, छटपटा कर नाथ।
हो न जावे शान्ति उनकी भंग,
धर्म पालो धीरता के संग।
संगिनी इस देह की मैं नित्य,
साक्षि हैं ध्रुव, धरणि, अनलादित्य।
सुत, तुम्हारे भाव ये अविभक्त,
मैं स्वयं उन पर करूँगी व्यक्त।"
"हाय! मत मारो मुझे इस भाँति,
माँ, जियो, मैं जी सकूँ जिस भाँति।
मैं सहन के अर्थ ही, मन-मार,
वहन करता हूँ स्वजीवन-भार।
मैं जियूँ लोकापवाद-निमित्त,
तब न होगा तनिक प्रायश्चित्त?
तुम सभी त्यागो मुझे यदि हाय!
तो मरूँ मैं भी न क्यों निरुपाय?
आर्य को तो मुँह दिखाने योग्य,
रख मुझे ओ भाग्य के फल भोग्य!"
शोक से अति आर्त, अनुज समेत,
भरत यों कह होगये हतचेत।
लोटता हो ज्यों हृदय पर साँप,
सभय कौशल्या-सुमित्रा काँप--
हाय कर, करने लगीं उपचार--
व्यजन, सिंचन, परस और पुकार।
भ्रातृ युग सँभले नयन निज खोल,
पर सके मुँह से न वे कुछ बोल।
देख सुत-हठ और वंश-अरिष्ट,
कह न माँएँ भी सकीं निज इष्ट।