भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुना है ज़ख़मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है / हैरत इलाहाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुना है ज़ख़मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है
तिरा अरमान ले ऐ क़ातिल-ए-आलम निकलता है

न आँखाों में मुरव्वत है न जा-ए-रहम है दिल में
जहाँ में बेवफ़ा माशूक़ तुम सा कम निकलता है

कहा आशिक़ से वाक़िफ़ हो तो फ़रमाया नहीं वाक़िफ
मगर हाँ इस तरफ़ से एक ना-महरम निकलता है

मोहब्बत उठ गई सारे ज़माने से मगर अब तक
हमारे दोस्तों में बा-वफ़ा इक ग़म निकलता है

पता क़ासिद ये रखना याद उस क़ातिल के कूचे से
कोई नालाँ कोई बिस्मिल कोई बे-दम निकलता है