भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह का भूला / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
रे मन तू बन पखेरू
जाने कहाँ उड़ जाता है
आ तनिक विश्राम भी करले
ठहर नही पाता है
हर रात मुझे तू दिव्य-स्वप्न दे
जाने कहाँ ले जाता है
बैठ मेरे नैनो के साये-
मेरी नींद उड़ाता है।
रे नीड़क तू चँचल क्यूँ है
कहीं तेरा छोर न पाता है
कभी इधर तो कभी उधर
इक डाल पे टिक नही पाता है
रहे सदैव बेचैन
चैन नही क्यूँ पाता है
रे पाखी मति-भ्रम लौट आ
नीड़ से तेरा नाता है-
रे पाखी अब मान भी जा तू
क्यूँ अपमानित हुआ जाता है
ये सच है कि सुबह का भूला
लौट शाम घर आता है-
आ तनिक विश्राम भी कर ले
ठहर नही क्यों पाता है?